सामाजिक श्रेणीबद्धता की सबसे ऊंची पायदान पर योद्धा बर्ग के लोग थे और इस काल में उनकी संख्या ढाई करोड़ की कुल आबादी में 20 लाख थी। यह शासक वर्ग के लिये बड़ी संक्या थी। उनका काम था अपने स्वामियों की सेवा करना। और बंफादारी को उनका सबसे बड़ा गुण माना जाता था।
आंतरिक तौर पर सामुराह दो बुनियादी समूहों में बटे थे-"शी” और “सोत्स”। “शी” या उच्चतर सामुराइ ऊंचे शासक अधिकारी और वास्तबिक अभिजात वर्ग के लोग थे, जबकि “सोत्सू” या ग्रामीण मातहत (या मातहत) निचले पदों पर काम करते थे। इन दोनों वर्गों के बीच शादी बहुत कठिन बात थी।
सामुराइ की आमदनी 200 कोकू् से 10,000 कोकू तक हो सकती थी, और इस दौर की वित्तीय समस्याओं के कारण उनकी वास्तविक आमदनी घट रही थी और उनमें से कुछ ने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के उद्देश्य से व्यापारी परिवारों में शादियां कर लीं।
शाति और स्थिरता के इस काल में “बाशिदो” (योद्धा का मार्ग) के नाम से जानी जाने वाली आचार सहिता का विकास किया गया! इसका सार यह् था कि एक सामुराइ को हर समय अपने स्वामी के लिये अपनी जान देने को तैयार रहना चाहिये। 1663 तक यह स्थिति थी कि कई सामुराइ अपने स्वामी की मृत्यु केबाद आत्महत्या (जुशी) कर लेते थे। बाद में इस प्रथा को रोका गयां। पैसों और काम की कमी से परेशान कई सामुराइ अक्सर बैर निकालने पर तुल जाते थे, जो लोकप्रिय नाटक का विषय बन गया। जिन सामुराईयों का कोई स्वामी नहीं था उन्हें “रोनित” (स्वामीविह्वीन सामुराइ) कहा जाता था। ये बेरोजगार आदमी समाज के लिए एक समस्या बन गये और 1651 में उनमें से कुछ ने तो विद्रोह भी कर दिया।
सामुराइ की आमदनी का स्रोत जमीन थी लेकिन जमीन पर उनका कोई कब्जा नहीं था। जास्तव में उन्हें दाइम्ये या सैनिक गवर्नर की ओर से वजीफा मिलता था और जब उनके पास कोई पद होता था तो उन्हें उस पद से जुड़ा बजीफां भी मिलता था। इसके बदले में उनसे आशा की जाती थी कि ये अपनी हैसियत के हिसाब से एक नौकर दल बनाकर रखेंगे। अत्यधिक साक्षरता होने और भौतिक साहित्यिक कलाओं को बढ़ावा मिलने के कारण, वे सरकारी अधिकारी हो गये।
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