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भारतीय समाज के अध्ययन के इंडालॉजिकल उपागम की आलाचेनात्मक परीक्षण कीजिए ।

 विभिन्‍न जातीय समूहां और संस्कृतियों के लोगां पर शासन करने की आवश्यकता ने यूरोपीय शासकों में शासितां के जीवन और संस्कृतियों का अध्ययन करने के लिए तात्कालिक रूचि पैदा की। बर्नार्ड कोहन (1958) का तर्क है कि ब्रिटिश प्राच्यविदों (व्तपमदजंसपेजे) का भारतीय भाषाओं का अध्ययन नियंत्रण और आदेश की औपनिवेशिक परियोजना के लिए महत्वपर्ण था। कलकत्ता के फोर्ट विलियम्स में कॉलजे की स्थापना इस विशिष्ट लक्ष्य के साथ की गई कि युवा प्रशासनिक अधिकारियों का संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं और संस्कृति का प्रशिक्षण दिया जा सके प्लासी युद्ध की अवधि (1757 के बाद) के बाद हम ब्रिटिश प्रशासकों के बीच फारसी संस्कृत और स्थानीय ज्ञान का बढ़ता रुझान पाते हैं जिसने भारत के समाज और संस्कृति का व्यापक विश्लेषण किया। भारत के इतिहास दर्शन और धर्म की गहराई का ज्ञान उन अनुवादों के माध्यम से हुआ जा शुरुआती विद्वानों द्वारा किए जा रहे थे। अलेक्जेंडर डो जिन्होंने सबसे पहले भारत के इतिहास का फारसी में अनुवाद किया और हिंदू धर्म को समझने का प्रयास किया उन्हें भी संस्कृत में लिखे गए हिंदू धर्म के मूलग्रंथों का उल्लेख नही करने की सीमाआं का भी एहसास हुआ। दिलचस्प रूप से भारतीय समाज और संस्कृति के बारे में ज्ञान के मुख्य स्रोत के रूप मं पाठ को महत्व देने की प्रक्रिया में अनुभाविक वास्तविकता पर कम ध्यान दिया गया था। इस प्रकार भारतीय समाज के एक लिखित या ब्राह्मणवादी संस्करण का निर्माण किया गया जिसने जनता के वास्तविक स्तर पर जीने के तरीके की बहुत उपेक्षा की।

18वीं शताब्दी और उस के बाद के इंडोलॉजिकल दृष्टिकोण ने अधिक व्यवस्थित वर्णन किया है और कुछ अवधारणाओं, सिद्धांतों और आयाम को प्रदान किया और विद्वानों ने दावा किया है कि यह भारतीय सभ्यता के अध्ययन से लिया गया है। इन विद्वानों का दृष्टिकोण और भारतीय समाज की समझ और उनकी संरचना काफी हद तक शास्त्रीय संस्कृत ग्रंथों और साहित्य के उनके अध्ययन पर आधारित थी।

स्कूल ऑफ इंडोलॉजी ने एक पारंपरिक संस्कृत और उच्च सभ्यता की उपस्थिति की ओर ध्यान आकर्षित किया जो एकता के एक झलक को प्रदर्शित करता है। हालांकि इसकी गलती यह मानने मं है कि भारत मं एक समरूप आबादी है जिससे सभ्यता के निचल या लाकेप्रिय स्तर का स्वीकार करने से इनकार कर दिया जाता है। भारत की इस एकता की जिसके बारे में इंडोलॉजिस्ट ने बात की थी, के वर्णन को जटिल बनाने के लिए स्थानीय क्षत्रीय और सामाजिक विविधताओं को ध्यान में नही रखा था। इसके बजाय उन्हांने बस एकता के दावे को मजबूत किया जो पारंपरिक विचारों और मूल्यों मं पाया गया था और इसलिए और गहरा हुआ और इस प्रकार कम परिभाषित था।

एक भौगोलिक इकाई के रूप में और एक सभ्यता के रूप मं भारत के बारे में इंडोलॉजिस्ट (भारतविदों) द्वारा मं बनाई गई कुछ धारणाएँ निम्नलिखित हैं:

· भारत का गौरवशाली अतीत था और इसे समझने के लिए प्राचीनकाल में लिखी गई पवित्र पुस्तकों से संदर्भ लिया जाना चाहिए। भारत की दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराएँ इन ग्रंथों में निहित हैं।

· इन प्राचीन पुस्तकों से भारतीय संस्कृति और समाज के वास्तविक विचारों का पता चलता है। भारत के भविष्य के विकास को समझने के लिए इन पुस्तकों को समझना चाहिए |

· प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन को प्रोत्साहित करने और संस्कृत और फारसी साहित्य और कविता सिखाने के लिए संस्थानों की स्थापना की जानी चाहिए |

· भारतविदों (प्दकवसवहपेजे) ने भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक पहलू पर जोर दिया और बड़े पैमाने पर भौतिक संस्कृति के अध्ययन की अनदेखी की। इसलिए वे हिंदू धर्म की अधिक रोमाचंक परिभाषा पर पहुंचे जिसके कई निहितार्थ थे। सबसे पहले इसने ब्राह्मणां की केंद्रीयता और भारतीय समाज मं उनकी प्रमुख स्थिति को भी अलग.अलग प्रमाणां के साथ सामने रखा जिसमें कुछ ब्राह्मण राजवंश और राजनीतिक और सैन्य शक्ति अन्य समूहां के हाथों में भी दिखाई दी ।

दूसरे इसने भारतीय समाज के एक सीमित दृष्टिकोण को जन्म दिया जिसमें समय के साथ हुये ऐतिहासिक बदलावां की बात करना तो दूर काई क्षेत्रीय भिन्‍नता सम्मिलित ही नहीं की। जिसके परिणामस्वरूप लागों द्वारा नित्यप्रति जीवन में किए जाने वाले वास्तविक व्यवहार और रीति रिवाजों के बजाय ग्रंथों द्वारा वर्णित और पूर्व निर्धारित व्यवहार की निर्विवाद स्वीकृति दी गई। इसलिए भारतीय समाज को नियमां और सामाजिक व्यवस्था की एक प्रणाली के रूप में समझा जाने लगा जोकि गतिशील न होकर अधिक जड़वत थी।

18वी शताब्दी मएसे कइ लागे थ जिन्‍हानें भारत क इस इडालॉजिकल या प्राच्यविद्यावादी दृष्टिकोण का समर्थन किया। तत्पश्चात्‌ भारत संबंधी लेखन पर मैक्स मुलर विलियम जोन्स हेनरी मेन और बाद में हेनरी थॉमस कोलब्रक अलेक्जेंडर डॉव अलक्जेंडर कनिंघम का प्रभाव था।

   इंडोलॉजिकल लखेन जिसम॑ भारतीय दर्शन, कला और संस्कृति प्रतिबिंबित करने वाले भारतीय विद्वान म॑ ए. के. कुमारस्वामी, राधाकमल मुखर्जी, डी.पी.मुकर्जी, जी.एस. घुरिये, लुई ड्यूमॉन्ट प्रमुख हैं। समाजशास्त्र के भीतर भी भारतीय समाजशास्त्र के कई संस्थापक पिता भी इंडोलॉजी से प्रभावित थे जैसे कि बी.एन. सील. एस. वी.केतकर. बी.के. सरकार जी एसघुरिये और लुइस ड्यूमॉन्ट और अन्य। घुरिये हालांकि डब्ल्यूएच आर के द्वारा एक प्रशिक्षित मानव विज्ञानी थे किंतु समकालीन परिघटनाओं. वेषभूशा, वास्तुकला, लैंगिकता, नगरीकरण, परिवार और रिश्तेदारी भारतीय आदिवासी संस्कृतियों जाति व्यवस्था अनुष्ठान और धर्म में वास्तविक स्वरुप को समझने के लिए शास्त्रीय ग्रंथों की ओर मुखातिब हुए। 

   उनके सहयोगियों और छात्रां जैसे इरावती कर्वे और के.एम. कपाड़िया ने भी ऐसा किया। घुर्ये की पद्धति को बाद में सर विलियम जोन्स या मैक्स मुलर द्वारा स्थापित ब्रिटिश लखन के बजाय भडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (मुंबई के इंडोलॉजिस्ट के लेखन से प्रभावित स्वदेशी इंडोलॉजी के रूप में संदर्भित किया गया है। ड्यूमाँट के भारतवादी पूर्वाग्रह वर्ण और जाति के बारे में उनके शोध में अधिक स्पष्ट दिखते हैं जहा वे भारतीय सभ्यता की एकता को नही मानते हैं। डूमांटे का कार्य होमा हिअरार्किंस (भ्पमतंतमबीपबने) जाति के चार वर्ण सिद्धांत के सीमित दृष्टिकोण पर आधारित है जो इसे एक सर्व समावेषी श्रेणी के रूप में देखता है और इसलिए भारतीय समाज मूल रूप से पदानुक्रम के सिद्धांत पर आधारित है जहां सभी को उनके जन्म आधार पर स्थान दिया गया है। उन्हांने आगे यह माना कि जाति की संरचना पवित्रता और प्रदूषण के सिद्धांत की विचारधारा और विचारों और मूल्यां के एक निश्चित और एकीकृत विचारधारा का परिणाम है जो बदलती नही हैं। लुई ड्यूमॉन्ट ने एक आधुनिक पश्चिमी समाज की कल्पना की जो भारत के विपरीत तर्कसंगतता की आकांक्षा रखता है और भारत में सामूहिकतावादी या समूह समुदाय आधारित पहचान की तुलना मं अनिवार्य रूप से व्यक्तिवादी था (ड्यूमॉन्ट 1972)। अतः कई मायनों में उन्हांने यूरोपीय भारतीय विभाजन पश्चिम और पर्वू को एक दूसरे के विपरीत मानते हुए इंडोलॉजिस्ट का अनुसरण किया।

   समाजशास्त्री ए.आर. देसाई भारतीय समाज को संस्कृति के नजरिये से देखने वालां की आलोचना करते हैं जोकि अपनी असमानताओं, विविधताओं, बोलीयों और शाषणयुक्‍त वास्तविक भारत से कोसों दूर हैं मात्र एक पाठवादी दृष्टिकोण प्रदान करता है।

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