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तोकुगावा व्यवस्था के पतन के कारणों का विश्लेषण कीजिए।

  तोकुगावा व्यवस्था के पतन के कारण निम्नलिखित है-

1)   सामंतवाद

सामंतवाद के मसले को भी सावधानीपूर्यक समझना आवश्यक है। तोकुकाक्ष का राजनीतिक और सामाजिक ढांचा प्राथीन अर्थों में सामंतयादी नहीं था बल्कि यह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के उदय का प्रतीक था जो सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपीय तानाशाही राजतंत्रों के कहीं अधिक निकट था। शोबुन (सैनिक गवर्नर) और काइन्शो (समांतों) के बीच संबंध बुनियादी तौर पर असमान थे और तमाम महत्वपूर्ण मामलों में गवर्नर का अधिकार सवोच्च होता था। इस तरह दाइब्बों को हर दो वर्षों में एक निश्चित समय के लिए राजधानी इृदों में हहना होता था और अपनी अनुपरिथिते के समय अपने परिवारों को बंधकों के रूप में छोड़कर जाना होता था। बड़े पैमाने के किसान विद्नोष्ठ जैसे संकट के काल में हाथ (सामंती जागीर) की स्वायत्तता के बावजूद शोगुन सीधे-सीधे हस्तक्षेप करता था। तोझुबाक्ा ने भी छुककीं के जरिये या किसी दाइब्घों की बिना वारिस छोड़े मृत्यु की स्थिति में दाइम्यों को फिर से जमाने की व्यवस्था रखी थी जिससे ये झलोजुष के असीषमित अधिकारों को चुनौती नहीं दे सकते थे। बल्कु-हाथ व्यवस्था कई प्रतिबंधों और संतुलनों के साथ काम करती थी जिससे किसी भी विरोधी गुट की एकता को बनने न दिया आये, और सर्वोच्च अधिकार इदो में झोबुनों के पास रहता था।

   शासक भैबुशई कुलीनों के चरित्र में भी बहुत बदलाव आया था। हिदेयोशी ने सैथुराई को भूमि से अलग करने की जिस नीति की शुरुआत की थी उसके फलस्वरूप ये महली कसबों में जमा हो गये थे। सैथुराई की आमदनी का आंज्िक स्रोत भूमि थी और आंशिक स्रोत वह वजीफा था जो उसे किसी काम के एवज में मिलता था। खैयुराई वर्ग का विभाजन म्तर के अंतरों के आधार पर था जिससे उनके काम की प्रकृति भी संकुचित होती थी और उनमें से कई बेकार भी थे। इस तरह नौकरीशुदा सखैजुराई ने घीरे-घीरे एक नौकरशाही का रूप ले लिया जिसमें योग्यता और काम उें जांचने का अभिन्‍न मापदंड बन गए। बाद में यह नौकरशाही विरासत उस तरीके के लिये काफी हद तक जिम्मेदार बनी जिसके जरिये मेजी सरकार ने आधुनिक संस्थाओं का विकास करने और नयी नीतियां लागू करने के अपने उद्देश्यों को प्राप्त किया।

2)   आर्थिक बदलाव

सोबुनाक्का व्यवम्था के पतन की जड़े उस अंतर्विरोध में थी जो 17र्वी शताब्दी में इसके बनने के समय इसके ढांचे में निहित था। यड़ अंतर्विरोेध एक सरल कृषि अर्थव्यवस्था पर आधारित श्रेणीबद्धता के स्तरों में विभाजित समाज की कल्पना करने वाले आदर्श और एक कहीं अधिक जटिल वाणिज्यिक, अर्थव्यवस्था की वास्तविकता और एक कहीं अधिक जटिल सामाजिक व्यवस्था के बीच था। ज्ञांतिपूर्ण विकास के एक लंबे दौर ने जो बदलाव किये उन्होंने ऐसी सामाजिक और बीद्धिक शक्तियों को जन्म दिया जिन्होंने लोबुनालशासन के आधार पर सवाल उठाया और उसकी जड़ें खोदीं। इस व्यवस्था के सरल विचारों के आधार की ओर लौट कर इसे सुधारने के बछुछु के प्रयास अधिकाधिक नाकाम रहे। शोझुबाक्षा के एक अधिकारी, मत्सुदाइरा सदानोबू ने 1790 में जो कायताई सुधार लागू किये वे तोकुबास्य द्वारा अपने ढहते शासन को मजबूत करने और अपने अधिकार को फिर से व्यक्त करने के अंतिम बड़े प्रयास थे। उनकी असफलता पतन की शुरुआत थी जिसे जापान को मुक्त करने के उद्देश्य से आने वाली पश्चिमी ताकतों ने और निश्चित कर दिया। देश के अंदर की मुसीबतों ने विदेशी दबाव की उपस्थिति में और भी भीष्म रूप ले लिया और इसका परिणाम यह हुआ कि सोछुकाबा का पतन हो गया और मेजी सरकार का उदय हुआ। लोकुगाया अर्थव्यवस्था वैसे तो ॥9वीं शताब्दी के प्रारंभ में भी प्रमुख रूप से खेतिहर थी, फिर भी इस समय तक इसमें बदलाव आ चुका था। 1800 में आबादी तीन करोड़ और 3 करोड़ 30 लाख के बीच कहीं थी और इसमें धीरे-धीरे वृद्धि हो रही थी। इस आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा गांवों में रहता था, लेकिन इदों, ओसाका और क्योटो जैसे शहरों की आबादी 20 लाख से भी ऊपर थी जबकि महली कसबों में 10,000 से100,000 के बीच लोग रहते थे। इस तरह जापान एक साधारण खेतिहर समाज भर नहीं था। शहरीकरण से व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला था। इन कार्यों को करने के लिये कूछ संस्थाएं भी बन गयी सोकुगाबा जापान की वाणिज्य राजधानी ओसाका और शहर के व्यापारी संघों (दस विनिमय केन्द्र या ज्यूनिन योगी) को गवर्नरी का संरक्षण प्राप्त था। इन विशेषाधिकारों के बूते पर यहां चावल पर कर हढगाने, पैसा भुनाने और ऋण देने के काम होते थे। अर्थव्यवस्था के वाणिज्यिक हो जाने से लोझुबाशा पर दबाव पड़ा लेकिन बढ़ते जा रहे वित्तीय घाटों के लिये उनके नुस्खे का आधार कन्फ्यूशियस की सूक्ति ही यनी रहीं कि फजूलखर्ची वाली जीवन शैली और उपभोग पर रोक छगाओ। चावल का उत्पादन धीरे-धीरे बढ़ा और क्योंकि चावल परंपरा से कर का आधार था इसलिए करों में होने वाली कोई भी वृद्धि किसानों के लिए दूसरी अधिक मुनाफे वाली फसले उगाने का कारण बनती थी।

   ग्रामीण अर्थव्यवस्था का चरित्र तेजी से बदल रहा था और 19वीं शताब्दी आते-आते क्षेत्रीय विशेषज्ञता कई किस्म की आर्थिक गतिविधियों को जन्म दे चुकी थी। मध्य और दक्षिण होंशु में वाणिज्यिक गतिविधि का बहुत अधिक प्रसार हो गया था और कई गांव कपास, तिलहन आदि उगाने के विशेषज्ञ हो गये थे। इदो के आसपास के क्षेत्र में कोई एक चौथाई ग्रामीण आबादी अब तक वाणिज्यि और दस्तकारी के क्षेत्र में रोजगार पा चुकी थी। शड़र कपड़ा रोगन और वर्तनों के उत्पादन केन्द्र थे। लेकिन इनके ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के साथ शहर वाणिज्यिक और प्रशासनिक केन्द्र बन गये और उनमें ग्रामीण क्षेत्रों से अनाधिकृत लोगों का आना जारी रहा।

   संपदा के नये स्रोतों को सफलतापूर्वक संभालने में तोकुगावा बकुफु की असमर्थता के कारण एक अत्यधिक स्थिर कर आधार और अर्थव्यवस्था के वाणिज्यिक हो जाने का परिणाम यह हुआ कि शोगुन और दाइम्बो दोनों के लिए वित्तीय समस्‍यायें खड़ी हो गयीं और उनके सैमुराई सेवकों के लिए भी। उदाहरण के लिए1830 में सत्सुमा के राज्य पर इसके वार्षिक राजस्व का तैंतीस'गुना ऋण था और 1840 तक चोशु पर  उसके वार्षिक राजस्व का तेईस गुना ऋण हो चुका था। इस वित्तीय गिरावट का असर खैमुशई पर पड़ा जिनकी आमदनी 17वीं शताब्दी में भी बहुत कम थी और जिनके सामने बढ़ती कीमतों और अपनी मांगों को पूरा करने की समस्या थी।

   बक॒फु ने इन समस्याओं से निपटने के लिए कई कदम उठाये थे लेकिन उनके सुधार के प्रयास समस्या की प्रकृति को समझ नहीं पाये। 1705 में बकुफु ने अमीर और शक्तिशाली योद्धाओं जैसे सौदागरों की संपदा को जब्त कर लिया था। लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ। 1720 के दशक में सोकुगावा योशिमुने(1684-1757) ने वित्तीय और प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारने के लिए कदम उठाये जिसमें उसने सौदागरों को लाइसैंस (व्यापार की औपचारिक अनुमति) दे दिये, लेकिन उसने उपभोग और धन वितरण को कम करने के परंपरागत नुस्खे का भी इस्तेमाल किया। परंपरा से हट कर उपाय बकुफु के अधिकारी तामुना ओकित्सुगु (1719-1788) ने किये! उसने वाणिज्य को बढ़ावा देने और उस पर कर लगाकर सरकारी राजस्व बढ़ाने के प्रयास किये, लेकिन ये प्रयास सफल नहीं हुए और उसे उसके पद से हटा दिया गया। उसके उत्तराधिकारी मत्सुदाइरा सदानोबु (1758-1829) ने योशिमुने द्वारा उठाये गये कदमों को दोहराने का प्रयास किया और 1841 में मिजुनो तादाकुनी ने तो सरकारी अनुमोदन वाले व्यापार अधिकारों को भी समाप्त कर दिया। इन उपायों ने पहले की गंभीर स्थिति को बस जटिल करने और गड़बड़ाने का ही काम किया और उन्हें वापस लेना पड़ा।

   एक ओर तो प्रभावी और उपयुक्त नीतियों को लागू करने की बकुफु की असमर्थता थी और दूसरी ओर उत्पादकों और स्थानीय सौदागरों के बीच अनधिकृत व्यापार में बढ़ोतरी हो रही थी। ऱज्य अपनी स्वयं की वित्तीय कठिनाइयों से उबरने के लिए इस व्यापार को स्वीकार करने या उसमें सक्रिय सहयोग करने को भी बाध्य थे। उदाहरण के लिए चोशु में 1840 में कुल गैर खेतिहर आमदनी शुद्ध खेतिहर आमदनी के बराबर ही थी। लेकिन खेतिहर आमदनी पर तो 39 प्रतिशत कर लगाया गया था। 1840 तक होंशू और शिकोकू के वाणिज्य क्षेत्रों में ग्रामीण लोग एक नकदी अर्थव्यवस्था से दृढ़ता से जुड़ चुके थे।

3)   तनाव और वंद

नकदी अर्थव्यवस्था का विकास होने और उसके परिणामस्वरूप सामाजिक संबंधों में होने वाले बदलावों ने तनावों और दंद्रों को जन्म दिया। सैथुराई के भीतर विभाजनों के कारण सामान्य हितों की स्थिति नहीं बन सकी | सौदागर भी एक जुट नहीं थे बल्कि उनमें भी हितों को लेकर विभाजन था। बुकुफु के कृपापात्र ओर के सौदागर तोझुनाबा के ढांचे से निकट से संबद्ध थे और जब इसका पतन हुआ तो वे भी समाप्त हो गये। बस एक पित्सुई घराना बचा और वह भी अपने संस्थापक की दूरदर्शिता के कारण।

   ग्रामीण सौदागरों ने एक गतिशील भूमिका निभानी शुरू कर दी थी, उन्हें विशेषाधिकारों के मुनाफे नहीं दिए गए और बदलाव की आवश्यकता के प्रति उनकी प्रतिक्रिया अनुकूल रही। शहरों की तरह ग्रामीण क्षेत्रों में भी आर्थिक बदलावों ने सामाजिक संरचना को गड़बड़ा दिया. और अव्यवस्था की स्थितियां बारंबार और अधिकाधिक हिंसक होने लगी। 1780 और 1830 के दशकों में अकाल, कीमतों में वृद्धि या अत्यधिक कर लगाने से किसानों में विरोध भड़का | किसान वर्ग पर खोकुबाका शांति को ताकत के साथ लागू किया गया और 1637 में शिमाबारा के विद्रोह को अत्यंत कड़ाई के साथ दबाया जा चुका था। बीच के वर्षों में इन विरोधों ने सामूहिक नियेदनों से बढ़ कर हिंसक कार्यवाहियों का रूप ले लिया। ये विरोध कई गांवों में फैल गए और इनमें हजारों ने भाग लिया।

   विद्वानों की गणना के अनुसार 17वीं शताब्दी में किसान विद्रोहों का औसत एक या दो प्रति वर्ष था जबकि 1790 के बाद उनका औसत प्रति वर्ष छः से ऊपर पहुंच गया था। शुरुआत की किसानी कार्यवाहियां ग्रामीण एकजुटता के रूप में और व्यापक तौर पर शांतिपूर्ण थी और उनका संबंध करों में कटौती करवाने से था। लेकिन बाद के वर्षों की किसानी कार्यवाहियां अक्सर गांव के सयानों की सल्मह के खिल्रफ हुईं। ये कार्यवाहियां हिंसक थी और अक्सर इनमें संपत्ति को नष्ट किया गया। कई बार तो किसानी विरोधों का चरित्र सहसाब्दिक रहा | इस तरह उदाहरण के लिए शहरी केन्द्रों में भी विरोध लोझुबाबा के .अंतिम वर्षों में बढ़ गए। इनमें से सबसे प्रतिनिधि विरोधों को बोगाओशी (विश्व नवीनीकरण) कहा गया। इन विरोधों की प्रेरणा लोक परंपराओं से ली गयी और इनका उद्देश्य सदायारिता की फिर से स्थापना करना था। ग्रामीण अशांति आर्थिक बदलावों की भी देन थी और बढ़ती शिक्षा और जागरूकता की देन भी।

4)   शिक्षा विद्वान और बिचार

यूर्व आधुनिक काल के आंकड़े बहुत विश्वसनीय तो नहीं हैं लेकिन यह कहा जा सकता है कि अधिकांश यूर्व-औद्योगिक समाजों की तुलना में जापान में शिक्षा का स्तर ऊंचा था। तैराकोया या मंदिर स्कूलों से लेकर दाइम्यो और बकुफु के प्रायोजन वाले स्कूलों और निजी विद्यापीठों तक विभिन्‍न स्कूलों ने जनता का एक पढ़ा-लिखा वर्ग बनाया। शहरों में साक्षरता का प्रसार प्रकाशन उद्योग की विकसित स्थिति और कसबाइयों की शिक्षा और सांस्कृतिक जीवंतता का प्रमाण है।

   सोरुगाबा समाज के आदर्शों और मूल्यों पर सवाल उठाने ने भी तेजी पकड़ी और इसे अनेक ख़ोतों से प्रेरणा मिली। चीनी ज्ञान की श्रेष्ठता पर जो सवाल उठे उससे विद्वानों को जापानी संस्कृति और सभ्यता के आधार की खोज उस अतीत में करनी पड़ी जब वह चीनी मूल्यों से बची हुई फल-फूल रही थी। मोतूरी नोरीनागा ने मुरासाकी शिकिबू के क्लासिकी हेई उपन्यास, ''मेजी की कथा" के अध्ययन के माध्यम से जापानी संस्कृति के असली केन्द्र का पता लगाने की कोशिश की। उसके अनुसार जापानी संस्कृति का केंद्र किसी दैवीय रूप से अवतरित सम्राट में, शिंतो काभी या देवताओं में और तार्किकता पर भावना की प्रमुखता में था। राष्ट्रीयज्ञान पंथ की श्रेणी में रखे गये इन विचारों ने जापानी संस्कृति और राजनीति के केन्द्र के रूप में साम्राज्यिक संस्था पर जोर दिया। इस तरह सूर्य देवी का प्रत्यक्ष वंशज जापान की भूमि देवीय थी और वहां का सम्राट एक जीता-जागता देवता था और इसलिए जापान की तुलना किसी और देश से नहीं की जा सकती। मोतूरी नोरीनागा के विचारों को हिराता अत्सुताने (1776-1843) ने आगे बढ़ाया। हिराता चीनी ज्ञान का घोर आलोचक था।

   इन विचारों के समानांतर मितो संप्रदाय के गिर्द होने वाला ऐतिहासिक विद्वता का विकास था। मितों की हान तोकुगाबा की एक सहवर्ती शाखा थी और तोक॒गावा घराने को उत्तराधिकारी दे सकती थी। हान ने जापान के एक इतिहास (दाई निहोनशी) को प्रयोजित किया और इस इतिहास में भी सम्राट की भूमिका पर जोर दिया गया है|

   तोरुनावा बछुफु ने जापान को अंतर्राष्ट्रीय संपर्क से वास्तव में काट दिया था लेकिन उन्होंने डच लोगों को दोशिमा में एक छोटे व्यापारिक केंद्र को लिये रहने की अनुमति दे दी। दोशिमा नागासाकी से हट कर एक मानव-निर्मित द्वीप था। डचों के यहां रुकने से यह द्वीप पश्चिमी ज्ञान का वातायान बन गया। जापानियों में उच्च विद्वानों (रंगाकुश) का एक गुट उभरा। इन जापानियों को डच विद्वान इसलिए कड़ा गया क्योंकि उन्होंने डब भाषा का अध्ययन किया और उसके माध्यम से चिकित्सा; धातु विज्ञान, किलेबंदी और दूसरे व्यावहारिक विषयों पर कई पुस्तकों का अनुवाद किया। इन विद्वानों ने एक महत्वपूर्ण और आलोचनात्मक धारा बनायी जिसने तोकुनाबा काल के समापन वर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन करने वाले सुगिता गेनवाकु (1733-1817) ने चिकित्सा शास्त्र पर पश्चिमी पुस्तकों के अपने ऊपर प्रभाव के बारे में लिखा। 1771 में उसने एक मनुष्य के शरीर की चीरफाड़ में हिस्सा लिया। यह चीरफाड़ निषेध के कारण गोपनीय ढंग से की गयी थी। इस चीरफाड़ में उसने पाया कि शरीर विज्ञान पर डच पुस्तकें अपने विवरण में पूरी तौर पर सही थीं और वह “पश्चिम के ज्ञान और पूर्व के ज्ञान के बीच के इस बड़े अंतर” से बहुत प्रभावित हुआ। होंडा तोशियाकी (1744-1821) जैसे अन्य विद्वानों ने आर्थिक विकास और विदेशी विस्तार की वकालत की और काइहो सेरयो (1755-1817) ने सरकार से व्यापार और वाणिज्य में लगने का आग्रह किया। ये विचार उन्होंने पश्चिमी कृतियों को पढ़ कर और पश्चिमी समाजों का अध्ययन कर पाये थे।

   अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में प्रचलित नए विधारों का एक नया अंग यह जागरूकता थी कि राज्य को चाहिए कि वह एक नए और दृढ़तर जापान की रचना के लिए प्रशासनिक, उद्यमी और सैनिक कौशलों को मिला दे। साम्राज्यिक (शाही) संस्था के केन्द्रीय महत्व को भी बताया गया। ये धारायें बछुछु की राजनीतिक आलोचना बढ़ाने पर एक साथ आ गयीं। बछ्ुछु अब उन पश्चिमी ताकतों से निपटने में और भी असमर्थ था जो यह मांग कर रही थीं कि जापान अपने द्वार खोल दे और व्यापार और राजनीतिक संबंधों के लिए स्वतंत्र संपर्क की छूट दे।

   डच दिद्वानों के ब्लान का उपयोग महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने बदलती स्थिति का विश्लेषण करने में किया। वातानाबे कजान (1793-1841) ऐसे एक प्रयास का प्रतीक है। तावारा के राज्य का एक सेवक वातानावे, एक योग्य और बुद्धिमान व्यक्ति था जिसने यह देखा कि पश्चिमी राष्ट्रों की शक्ति चीजों के अध्ययन विज्ञान-बोघ, और घटनाओं की अग्रगामी गति में” निहित थी। पश्चिमी समाजों में विज्ञान “ज्ञान की अन्य तीन शाखाओं-धर्म और नीति, शासन और चिकित्सा-की सहायता के लिए और उस आधार का विस्तार करने के लिए था जिसका आधार वे विभिन्न कल्ाएं और तकनीकें हैं जो उन पर आश्रित हैं”। कजान को तो गिरफ्तार कर लिया गया और उसने बाद में आत्महत्या भी कर ली, लेकिन दूसरे लोग उसी तरह का काम करते रहे। ओगाता कोआन (1810-1863) ने 1838 में ओसाका में एक स्कूल खोला जिसमें डच ज्ञान की दीक्षा दी जाती थी इस स्कूल के कई विद्यार्थियों ने आने वाले समय में मेजी पुर्नस्थापना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

   आईजावा सेशीसाई का लिबशेष या प्रबन्ध 1825 में प्रकाश में आया। उत्तर में रूसियों की बढ़त के प्रति सजग आईजावा (1781-1863) ने देखा कि पश्चिमी ख़तरे से निपटने के लिए जो रणनीति कारगर हो सकती थी उसके लिए तैनिक शक्ति की और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की भी आवश्यकता थी। पश्चिमी ताकतें ईसाई धर्म और अनिवार्य सैन्य भर्ती का इस्तेमाल करती थीं, इसलिए जापान के लिए अपने हथियारों को आधुनिक बनाना और अपने कोछुलाई या राष्ट्रीय मर्म को फिर से जगाना अत्यंत आवश्यक था। उसने लिखा: “सूर्य हमारी दैवीय भूमि पर उगता है, और आदिम ऊर्जा का मूल यही है। महान सूर्य के वारिस अनादिकाल से शाही सिंहासन पर आसीन हैं" इस तरह आईजावा विभिन्‍न परंपराओं का सहारा लेकर एक नया कार्यक्रम देख रहा था जिससे पश्चिमी खतरे से बनी चुनौतियों का सामना किया जा सके। वह पश्थिमी ज्ञान का इस्तेमाल जापान और जापानी मूल्यों की श्रेष्ठता को फिर से व्यक्त करने के लिए कर रहा था। जापानी संस्कृति की शुद्धता को फिर से व्यक्त करने और कभी-कभी इन देशज अवधारणाओं को सुदृढ़ करने के लिए पश्चिमी प्रौद्योगिकी को शामिरु करने का प्रयास करने वाली साप्राज्यिक (शाही) संस्था से प्रेरित राजभक्ति के आदर्शों को आगे दूसरी बौद्धिक धाराओं ने भी मजबूत किया । चीनी दार्शनिक बांग यांग मिंग, या ओयोपे, के संप्रदाय में यह तर्क दिया गया था कि पारंपरिक तर्क कार्यवाही के लिए निर्देश के रूप में सहायक नहीं थे, इसलिए व्यक्ति के लिए आवश्यक था कि वह अपने अंदर इनकी तलाश करे औरउसी के अनुसार आचरण करे। इन अवधारणाओं से प्रेरणा ठेकर एक निचले स्तर के अधिकारी, ओशियो हेडाचीरो, ने अपनी नौकरी छोड़ दी और 1837 में एक विद्रोह का नेतृत्व किया।

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