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जापान में (1952-1973) के दौरान हुए प्रमुख राजनीतिक एवं आर्थिक घटना क्रमों का वर्णन कीजिए।

  राजनीतिक घटनाक्रम

जिस काल में जापान ने अपनी राजनीतिक स्वाधीनता को फिर से हासिल किया, उसमें - आर्थिक वृद्धि के एकाकी प्रयास देखने में आये। शुरू के वर्ष वास्तब में पहले के दौर का ही विस्तार थे, लेकिन 1955 तक यद्ध पश्चात की व्यवस्था की ब॒नियादी रूपरिसा तैयार हो. गयी थी। 1955 में समाजवादी पार्टी की दोनों शाखाओं का अक्टबर में विलय होकर जापान समाजवादी पार्टी बन गयी और नवम्बर में दो रूढ़िवादी दलों का विलय होकर उदारवादी जनतांत्रिक पार्टी का गठन हो गया। आगे चलकर, युद्ध पश्चात के जापान की राजनीति में इसी उदारवादी जनतांत्रिक पार्टी का बोलबाला रहा। ये दोनों पार्टियां उस व्यवस्था का अंग बन गयीं जिसे डेढ़ पार्टी की व्यवस्था कहा जाता था, क्योंकि समाजवादी सबसे बड़ा प्रतिपक्ष होते हाए भी इतना बड़ा पक्ष नहीं था कि राज्यतंत्र को प्रभावित कर सकता था।

   उदारवादी जनतांत्रिक पार्टी चुनावी प्रक्रिया पर हावी रही और छठवें प्रतिनिधि सभा आम चनावों में जीत कर वह सत्ता में आ गयी। समाजबादी विपक्ष में आये, और जो दक्षिण और वाम गूट एक हुए थे उनमें प्राय: असहमते रहती थी। 1955 में उनमें विभाजन हो गया. जिसमें दक्षिणपंथी गूट ने जनतांतिक समाजवादी पार्टी बना ली।

   युद्ध समाप्त होने के बाद के वर्षों में नये धार्मिक पंथों का उदय हआ। इनमें से अनेक की स्थापना युद्ध से पहले के वर्षों में हुई थी, लेकिन वे लोकप्रिय युद्ध पश्चात के उन कंठनाइयों वाले वर्षो में ही हुए जब लोगों ने उसके उपदेश में सांत्वला और शांति दुंढनी चाही। इनमें से सोक्कागक्काई या मल्य सर्जक समाज अपनी व्यत्पत्ति तेहरवीं शताब्दी के बौद्ध पुरोहित निचीरेन से बताता था। निचीरेन ने एक राष्ट्रवादी बौद्ध पंय की स्थापना की थी और वह इस बात के लिये विख्यात था कि उसने अपनी प्रार्थना के बल पर तफान उठा कर आक्रमणकारी मंगोल बेड़े को नष्ट कर दिया था। इस दैवीय हवा या कामीकाजे शब्द का उपयोग यद्ध के दौगन आत्मघाती बमवर्षकों के लिये भी किया गया था। बौद्ध संगठन सोक्कागक्काई बहुत प्रभावशाली हो गया और 1964 में उसकी सहायता से एक गजनीतिक दल का गठन हआ। कोमेतों अथवा स्वच्छ शासन पार्टी कछ समय के लिये एक बडी शक्ति बन गयी। वेसे इसकी शांक्त शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित थी। जापान साम्यवादी पार्टी पर यद्ध के पहले बाली सरकार ने पाबंदी लगा दी थी, लेकिन अमेरिकी आधिपत्य ने उसे सक्रिय होने की अनुमति दे दी, और इस पूरे दौर में इसे डायट में अल्पमत का स्तर मिला रहा। लेकिन. इसका दैनिक पार्टी अखबार अकाहाता (लाल ध्वज) खूब बिकता था।

   विशेषकर इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये कि शुरूआती दौर में गठबंधन बदलते रहे और विवाद सड़े होते रहे, जिनका प्राय: यह परिणाम हुआ कि डायट के अंदंर अव्वंबस्था हो गयी और बाहर प्रदर्शन हुए। सरकार ने अपनी शक्ति बढ़ाने और आने नियंत्रण का विस्तार करने का प्रयास किया। शिक्षा मंत्रालय ने सकल अध्यापकों और पराठ्य-पुस्तकों पर अपने निरीक्षण के अधिकारों को और बढ़ा लिया। पुलिस के अधिकार बढ़ा दिये गये और आत्म-रक्षा बलों में भी लगातार वृद्धि हो रही थी। विवाद का एक प्रमुख मुद्दा 1951 की अमेरिका-जापान परस्पर सुरक्षा साध थी। इस संधि की 1960 में समीक्षा होनी थी, और इसके संशोधन को लेकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया।

   इस संधि पर 1951 में योशिदा ने हस्ताक्षर किये थे, जिसमें उसने अमेरिका को जापान में व्यापक विशेषाधिकार दे दिये थे। अमेरिका ने जापान में अड्डे बना लिये और ओकिनावा पर आधिपत्य करे लिया था। समाजवादियों और दूसरे गुटों ने इसे ''असमान संधि” बताते हुए इसका विरोध किया। समाजवादी पार्टी में दोफाड़ इस संधि का समर्थन करने के सवाल पर हुआ। समाजवादियों का तर्क था कि इस संधि के चलते-जापानियों को अग्रिम पंक्ति की सेनाओं के रूप में काम करना पडेगा और अगर अमेरिका ने कोई दूसरी जंग लड़ी तो उसमें जापान को भी घसीटा जायेगा। अमेरिका कोरिया में यह कर ही चुका था।

   डरय साध के संशोधन से पहले व्यापक प्रदर्शन हुए। 19 मई 1960 को डायट के विपक्षी सदस्यों ने सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) को पकड़ लिया और उसे डायट में भवन के तलघट में बंद रस्रा। इससे झगड़े हो गये और संशोधन का काम विपक्षी सदस्यों की अनपस्थिति में ही कर दिया गया। इससे जनता भड़क गयी और कछ और प्रदर्शन हुए जिनका नेतृत्व छात्र संधों के परिसंघ जेंगाक्रेन जैसे उग्र छात्र संगठनों ने किया। सबसे बड़ा प्रदर्शन 15 जून को हुआ जिसमें डायट को घेर लिया गया और झड़प में टोक्यो विश्वविद्यालय की एक युवा छात्रा मारी गयी। संधि 23 जून को प्रभावी हुई और प्रधानमंत्री किशी नोबुसुके ने अगले महीने जुलाई में त्यागपत्र दे दिया।

   सरक्षा साँध विरोधी प्रदर्शन और उनकी विफलता युद्धोत्तर काल की महत्वपूर्ण घटना थी। अनेक विद्वान इन्हें भागीदारी जनतंत्र का प्रमाण मानते हैं। प्रदर्शन होने का कारण संधि का मसौदा ही नहीं थी, बल्कि किशी का इस स्थिति से निपटने का तरीका भी रहा। अनेक लोगों का यह मानना था कि सत्तारूढ़ एल डी पी ने जो जोर जुल्म किये उनकी कोई आवश्यकता नहीं थी। लाखों लोगों ने इसलिये आम चुनावों की मांग करने वाली याचिका पर हस्ताक्षर किये। लेकिन, यह भी याद रखना अहिये कि 1962 में एस डी एफ ने जमीन से हवा में मार करने काले प्रक्षेपास्त्र हासिल कर लिये थे, और जब अमेरिका ने यह वक्तव्य दिया कि एक नाभिकीय जलपोत जापान भेजा जायेगा तो, इसे लेकर कोई प्रदर्शन नहीं हुआ। जापान उच्च वृद्धि के काल में अपने पांव जमा रहा था और अपनी शक्तियों को विकास के कार्यों “में लगा रहा था।

आर्थिक घटनाक्रस

सन्‌ 1854 से लेकर ।971 तक जापान ने दस प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वृद्धि की, जिसे "चमत्कार" बताया गया। इस दौरान औद्योगिक सुविधाएं कल राष्ट्रीय उत्पाद का 36 प्रतिशत तक बढ़ गयीं, और जापान का वैसे ही तेजी से रूपांतरण हुआ जैसे मेजी पुनरुत्थान के बाद के वर्षों में हुआ था। बहुत से लोगों के मन में जों सबसे पहला सवाल उठता है वह यह है कि जापान ने यह सब हासिल कैसे किया। क्या यह चमत्कारी वृद्धि स॒विचारित और सुनिष्पादित नीतियों का ही एक अंग थी? अनेक विद्वानों ने यह तर्क दिया है कि जापान को यें परिणाम उसकी सोच-विचार कर अपनायी गयी नीतियों के कारण हासिल हुए। उदाहरण के लिग्ने इतिहासकार चामर्स जॉनसन ने जापान के आर्थिक विकास को दिशा और नेतृत्व देने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले शक्तिशाली संगठन की भूमिका के विषय में लिखा है। अनेक कृतियों अथवा लेखों में ध्यान का केन्द्र सरकार -व्यापार-उद्योग के बीच के घनिष्ठ संबंध रहे हैं, और तर्क यह दिया गया है कि इसी घनिष्ठता के साथ काम करने के कारण आर्थिक लक्ष्यों पर और इन आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये आवश्यक नीतियों पर सहमति अथवा एकमत बनाना संभव हुआ।

   यद्ध पश्चात के जापान में आर्थिक उछाल प्रधानमंत्री इकेंदा के ' आय दगनी करने'' की का प्रतीक बनी। 1960 त्तक जापात का कल राष्ट्रीय उत्पाद दुनिया में पांचथें स्थान पर आ गया था, और 1968 तक उसका स्थान अमेरिका के बाद दूसरा हो गया था। जापानी अर्थव्यवस्था को सरकारी नियंत्रणों और नेतृत्व त्व में रखा गया, लेकिन प्रतिस्पर्धा को हतोत्साहित नहीं किया गया, बल्कि वह जबरदस्त थी और सरकार के दृष्टिकोण में भी लोच रही। इस्पात उद्योग की ओर 1950 के दशक में विशेष ध्यान दिया गया। उसका विस्तार करने के लिये ऋणों और कोष की व्यवस्था की गयी। इसके परिणामस्वरूप 1970 के दशक के मध्य तक जापान उत्पादन के मामलों में पश्चिम की इस्पात फर्मों से आगे निकल चुका था। शी ने प्रारंभ में तो कड़ा नियंत्रण रखा और लक्ष्य निर्धारित किये, लेकिन जब इस्पात फर्मों की वृद्धि हो चली तो, उसने उनके नियोजन का काम उन्हीं पर छोड़ दिया। लेकिन '' प्रशासनिक नेतृत्व” का काम उसने अपने पास ही रखा। इस नेतृत्व को कानूनी समर्थन नहीं था, लेकिन कंपनियों के लिये भी इस नेतृत्व को नहीं मानना असंभव नहीं तो अत्यधिक कठिन तो था ही। ऐसे ही कदम पोत-निर्माण जैसे उद्योगों में भी उठाये गये। जापान की प्रारंभिक सफलता ने इसके व्यापारी सहभागियों के लिये समस्याएं खड़ी कर दी। इन व्यापारियों को सीमित बाजारों और सस्ते निर्यातों को लैकर शिकायत हो गयी। जापानी बस्तर, जूते आदि यूरोपीय और अमेरिकी बाजारों में अपनी पैठ कर रहे थे। जापान ने विदेशी फर्मों को प्रवेश की कुछ अनुमति तो दी, लेकिन जापानी कंपनियों के विदेशी स्वामित्व को 25 प्रतिशत तक सीमित कर दिया। बुनियादी तौर पर यह नीति अत्यधिक प्रतिबंध लगाने वाली रही, और 1980 के दशक में भी विदेशी स्वामित्व 2 प्रतिशत से नीचे ही रहा।

   अनेक जापानी विद्वानों ने जिस आम विचार पर तर्क किया वह यह था कि जापान की वृद्धि का श्रेय सीमित बाजारों को नहीं, जापानी व्यवस्था को जाता है। इस व्यवस्था का केन्द्र आजीयन रोजगार, बरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति और उद्यम संघ थे। जापानी कंपनियों में मजदूरों की नियुक्ति उनके कार्यजीवन के लिये होती थी, और कंपनी उनकी आवास, - चिकित्सा और अवकाश जैसी अनेक आवश्यकताओं को पूरा करती थी। कर्मचारी को इस आधार पर वेतन दिया जाता था कि उसने कितने वर्ष काम किया और उसी के अनसार उसे पदोन्नति दी जाती थी। इसका अर्थ यह होता था कि कर्मचारी को नौकरी बदलने की “आवश्यकता नहीं होती थी। योग्यता से अधिक जोर निष्ठा और समर्पण की भावना पर रहता था। संघों का गठन विभिन्‍न उद्योगों के बीच नहीं, बल्कि फर्म या उद्यम के स्तर पर होता था। इसका अर्थ यह था कि बाहरी हस्तक्षेप के लिये कोई गुंजाइश नहीं थी और कंपनी और श्रमिक संघ साथ-साथ मिल कर उत्पादकता बढ़ा सकते थे। लेकिन यह आदर्श व्यवस्था व्यापक तौर पर बड़ी फर्मों में ही लागू थी, जबकि अधिकांश मजदूर छोटी फर्मों में थे। जापान में एक दुसरा ढांचा था। क॒छ ऐसी बड़ी कंपनियां थीं जो मुनाफे की सुनिश्चितता देती थीं और उनका उत्पादन भी अधिक था। लेकिन 53 प्रतिशत मजदूर ऐसी फर्मों में काम करते थे जिनमें, 1965 में, सौ से कम लोग काम करते थे। इन मजदूरों के बीच का अंतर उनके वेतन में और काम की दशाओं में दिखायी देता था। बैसे, 1970 के दशक में यह अंतर कम होने लगा। इसके अतिरिक्त, छोटी फर्मों के मजदूर बहुत कम संगठित होते थे। अंतिम बात यह कि, वेतन और काम की किस्म को लेकर महिला मजदूरों के साथ भेदभाव किया जाता था। इसके परिणामस्वरूप आजीवन व्यवस्था के तहत स्थायी महिला कर्मचारियों की संख्या न के बराबर थी। स्त्रियों और पुरुषों के वेतनों के बीच का अंतर 1970 के दशक में कुछ कम हुआ, लेकिन न्यूनतम वेतन पाने वालों में महिलाओं की संख्या बहुत बढ़ गयी।

   उन्‍नीस सौ साठ के दशक की आर्थिक वृद्धि ने सामाजिक परिदृश्य को बदल कर रख दिया गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ गया और शहरी केंद्रों में आबादी का जमाव अधिक हो गया। ऐसा विशेषकर ओसाका- टोक्यो पटूटी में हुआ। उद्योग और आबादी का जमाव इस क्षेत्र में होने के कारण घिच्रपिच आवास और औद्योगिक प्रदूषण की स्थिति बन गयी। नागरिक संगठनों और निवासी संधों ने पर्यावरण को खराब करने का विरोध और बेहतर रहन-सहन की मांग शुरू कर दी। आर्थिक वद्धि के मनाफों से देश तो संपन्‍न हो रहा था, लेकिन जापानी जनता को पश्चिमी देशों की जनता की तरह सामाजिक लाभों का फायदा नहीं मिल रहां था। टेलीविजन, वाशिंग मशीन और रेफ़रिजरेटर ने लोगों के जीवन को बदल डाला और सफलता के ये प्रतीक तेजी से पूरे जापान में फैल गये।

   सन 1953 में मिनामाता रोग पहली बार प्रकाश में आया। इस रोग का प्रभाव यह होता था कि इसके रोगी अपनी शारीरिक क्रियाओं पर नियंत्रण खो बैठते थे। इस रोग का कारण औद्योगिक प्रदूषण था, जिसका पता 1959 में चला। लेकिन, 1973 में जाकर इसके रोगियों को अदालती हर्जाना मिल पाया। दूसरे गेगों में निर्बाध औद्योगिक विकास के खतरों को समझ पाने की कमी दिल्लायी दी। ।967 में प्रदूषण पर रोक लगाने के लिये एक कानून पारित किया गया, और 1970 के दशक में सरकार ने प्रदूषण सेकने के लिये गंभीर उपाय किये।

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