आजादी के बाद, कांग्रेस सरकार ने जे. कुमारप्पा की अध्यक्षता म कृषि सुधार समिति की नियुक्ति की, जिनकी सिफारिशों के आधार पर निम्नलिखित भूमि सुधार स्वतंत्र भारत में पेश किए गए जो ग्रामीण आर्थिक विषमताओं को चुनौती देने के लिए महत्वपर्ण थे।
1 जमींदारी उन्मलू न अधिनियम, 1950 आजादी के बाद का सबसे बड़ा कृषि सुधार था। हालाँकि, यह अधिनियम 1951 में सरकार द्वारा प्रथम संशाधन अधिनियम जारी करने के बाद ही संविधान की धारा 31 (क), 31 (ख) और नौवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के बाद ही सही मायने में लाग [केया जा सका, जिससे संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया था । संशोधन और परिवर्धन ने राज्य को किसी भी भूमि या संपत्ति का अधिग्रहण करने का अधिकार दिया।
2 जमींदारी उन्मूलन अधिनियम ने भी बेगारी / बंधुआ मजदूरी का भी दंडनीय अपराध घांषित किया।
3 राज्य और खेतिहर के बीच मध्यवर्ती स्वामित्व के उन््मलू न के लिए कानून ने, मिट्टी वास्तविक रूप से खेत को जोतने वाले को भूमि देने का अधिनियम 1950 में पारित किया और दूसरी पंचवर्शीय योजना द्वारा लाग [किया गया था। कानून में विधवाओं, नाबालिगां और अन्य विकलांग व्यक्तियां को छोड़कर जमीन को पट्टे/भाड़े पर देने के लिए प्रतिबंधित है। भूस्वामी द्वारा बटाईदार और अन्य किरायेदारों को जबरन और अवैध निकासी से बचाने के लिए यह प्रावधान किए गए थे।
4. भूमि अधिकतम सीमा निर्धारित अधिनियम 1960 में कानूनी रूप से अधिकतम आकार का निर्धारित करने के लिए अधिनियमित किया गया था आय /»संपत्ति के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए इससे ज्यादा कोई भी किसान या खेतिहर घराना कोई जमीन नहीं रख सकता था।
5 पुनः प्राप्त बंजर भूमि के विकास के लिए सामहिक खेती के विचार, जिस पर भूमिहीन मजदूरों को रोजगार दिया जा सकता था, को प्रोत्साहित किया गया।
स्वतंत्रता के बाद शुरू किए गए भूमि सुधारों के कारण, बड़े भूस्वामियों के हाथों में भूमि की केन्द्रीकरण बढ़ गया है। मूलभतू प्रावधान, “जोतने वालां की भूमि” बड़े भस्वामियों द्वारा विकृत कर दिया गया था, जिन्होंने कानून के लाग होने से पहले लंबी अवधि के किरायेदारों का बेदखल कर दिया था। इसके अलावा, भूमि अधिकतम सीमा निर्धारित अधिनियम के मूल उद्देश्यों को बड़े जमींदारों और अन्य निहित स्वार्था द्वारा भूमि के काल्पनिक विभाजन या भूमिहीन और गरीब किसानों को भूमि का बेनामी लेनदेन के माध्यम से रिकॉर्ड में महज कागज प्रविष्टियों या सम्पत्ति के नकली मालिकाना के माध्यम से, विरासत का कानून और किसानों की निरक्षरता के कानून के साथ संघर्ष के कारण इसे प्रभावहीन बनाया गया।
इसके अलावा, संयुक्त खेती जैसे विचारों को थोड़ी सफलता मिली, क्योंकि इसका प्रयोग विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों द्वारा भूमि सुधारों की उपक्षा की सुविधाजनक विधि के रूप में और सरकारी संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने में प्रयोग किया गया था।
नचर (2002: 216.17) बताते हैं कि राज्य ने अपना ध्यान भूमि पुनर्वितरण से कृषि की उत्पादकता “बढ़ाने पर केंद्रित कर दिया | कृषि के बढ़ते हुए निगमीकरण और व्यावसायीकरण ने भूमि समेकन, पंजू प्रधान कृषि तकनीकां का उपयोग, एकल.फसल और निर्यात फसल उत्पादन का नेतृत्व किया। इसने मध्यम और छोटे किसानों और भूमिहीन कृषि मजदूरों को बेरोजगार बना दिया है और उन्हें निकृष्टता की स्थिति में पहुंचा दिया। पजी प्रधान कृषि और ग्रामीण असमानताओं का बढ़ाने मं इसके निहितार्थ पहली बार 1960 के दशक में भारतीय राज्य द्वारा हरित क्राति की शुरुआत के साथ दिखाई दिए। हरित क्रांति ने उच्च.उपज वाले किस्म (भ्ल्ट) के बीज, ट्रैक्टर, सिंचाई सुविधा, कीटनाषक और उर्वरक जैसे आधुनिक तरीकों और प्रौद्योगिकी को अपनाया। इसके लिए भारी निवेश की आवश्यकता थी और इसे केवल बड़े भस्वामियां और धनी किसानों द्वारा ही वहन किया जा सकता था। पी.सी. जोशी (1974)के अनुसार पंजाब और हरियाणा में जो प्रवृत्ति सामने आई, वह यह थी कि छोटे भस््वामियों ने अपनी जमीन बड़े किसानों को किराए पर दे दी, जिन्हें अपनी मशीनरी का लाभकारी ढंग से उपयोग करने के लिए बड़ी जमीन की जरूरत थी। इसने बड़े जमींदारां को समृद्ध किया, इसने भूमिहीन श्रमिकों को दुख और बेरोजगारी में धकेल दिया।
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