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तोकुगावा सामाजिक संरचना का विश्लेषण कीजिए।

 तोकुगावा  समाज स्तर के समूहों में बंटा हुआ था, और इन समूहों में एक स्थिति से दूसरी में जाना सिद्धान्त रूप से असंभव था। फिर भी, व्यवहार में, आर्थिक विकास के कारण लोग अपना सामाजिक स्तर बदल लेते थे।

1)   सम्राट और अभिजात तंत्र

क्योटो स्थित सम्राट के पास कोई अधिकार तंत्र नहीं था। वह एक छोटी और अलग-यलग दरबारी संस्कृति का केन्द्र था। सम्राट के पास अधिकार तो थे नहीं, इनकी भरपाई उसकी न्‍्यापक वंशाबली में होती थी। 137 अभिजात्य परिवार थे जिनमें से अधिकांश पांच मध्यकालीन बंशावलियों का होने का दावा करते थे। उनली एक बड़ी संख्या फ्यूजीबारा परिवार का वशज होने का दावा करती थी। फ्यूजीवारा परिवार प्राचीन जापान में शक्तिशाली रहा था।

   इन अभिजास्यों की आमदनी तोकुगावा के छोटे मातहतों के समान थी और उन्हें अपनी इस कम आमदनी को पूरा करने के लिये पढ़ाने का काम करना पड़ता था। वे अक्सर कलाओं में कुशल होते थे। कई अभिजात्य लोग बौद्ध पुरोहित बन गये और उन्होने बौद्ध व्यवस्था में एक महृत्त्यपूर्ण भूमिका निभायी । तोकुनावा धराना सम्राट और दरबार से अलग ही रहा, हालाकि इयेसा ने अपनी बेटी की शादी तत्कालीन सम्राट गो-मिजुनू से की थी।

2)   सामुराइ

सामाजिक ओणीबद्धता की सबसे ऊंची पायदान पर योद्धा बर्ग के लोग थे और इस काल में उनकी सल्या ढाई करोड़ की कुल आबादी में 20 लाल थी। यह शासक वर्ग के लिये बड़ी संख्या थी। उनका काम था अपने स्वामियों की सेवा करना। और वंफादारी को उनका सबसे बड़ा गुण माना जाता था

   आतरिक तौर पर सामुराइ दो बुनियादी समूहों में बटे थे-“शी” और "“सोत्सूट। “शी” या उच्चतर सामुराद ऊचे शासक अधिकारी और वास्तविक अभिजात वर्ग के लोग थे, जबकि “सोत्सू" या ग्रामीण मातहत (या मातहत) निचले पदों पर काम करते थे। इन दोनों वर्गों के बीच शादी बहुत कठिन बात भी। है सामुराइ की आमदनी 200 कोकू से 10,000 कोकू तक हो सकती थी, और इस दौर की वित्तीय समस्याओं के कारण उनकी वास्तविक आमदनी घट रही थी और उनमें से कुछ ने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के उद्देश्य से व्यापारी परिवारों में शादियां कर लीं।

    शाति और स्थिरता के इस काल में “काशिदो” (योद्धा का मार्ग) के नाम से जानी जाने वाली आचार सहिता का सिकास किया गया। इसका सार यह था कि एक सामुराइ को हर समय अपने स्वामी के लिये अपनी जान देने को तैयार रहना चाहिये। 1663 तक यह स्थिति थी कि कई सामुराइ अपने स्वामी की मृत्यु के बाद आत्महत्या (जुंगी) कर लेते थे। बाद में इस प्रथा को रोका गया। पैसों और काम की कमी से परेशान कई सामुराइ अक्सर बैर निकालने पर तुल जाते थे, जो लोकप्रिय साटक का विषय बन गया। जिन सामुराईयों का कोई स्वामी नहीं था उन्हें “रोनिन” (स्वामीबिद्दीन सामुराई) कहा जाता था। ये बेरोजगार आदमी समाज के लिए एक समस्या बन गये और 1651 में उनमें से कुछ ने तो विद्रोह भी कर दिया।

   सामुराइ की आमदनी का स्रोत जमीन थी लेकिन जमीन पर उनका कोई कब्जा नहीं था। बास्तव में उन्हें दाइम्ये या सैनिक गवर्नर की ओर से वजीफा मिलता था और जब उनके पास कोई पद होता था तो उन्हें उस पद से जुड़ा बजीफा भी मिलता था। इसके बदले में उनसे आशा की जाती थी कि मे अपनी हैसियत के हिलाब से एक नौकर दल बनाकर रखेंगे। अत्यधिक साक्षरता होने और भौतिक साहित्यिक कलाओं को बढ़ावा मिलने के कारण, वे सरकारी अधिकारी हो गये।

3)   किसान, दस्तकार और व्यापारी

आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेती में लगा था और इससे मिलने वाले राजस्व से “बाकुफू” का पोषण होता था। गांवों में एक हृद तक स्वशासन था जिससे उनमें सहकारी काम को सुदृढ़ता मिलती थी। उनका जीवन कठिन था और बे ज्वार-बाजरा और कूटू और सब्जियों और “मीसो” (सोयाबीन से बना मिश्रण) सवा कर गुजारा करते थे। प्राकृतिक विपदाओं और अकाल में उनकी जानें चली जाती थीं।

   शांति और स्थिरता के कारण अर्थव्यवस्था का व्यापारीकरण बढ़ा और किसानों की हालत में सुधार हुआ। कइयों ने बाजार के लिये उत्पादन शुरू कर दिया, और करों के न बढ़ने के कारण वे अपनी कमाई को “साके” (चावल की शराब), सोया की चटनी बनाने या रेशम का उत्पादन करने में लगा सकते थे। वे महाजनों के रूप में भी उमरे। जमीन तो नहीं बेची जा सकती थी, फिर भी काश्तकारी में बढ़ोतरी हुई और शहरी क्षेत्रों की ओर जाने की स्थिति मी बढ़ी।

   शहरी केन्द्रों का बढ़ना तोकुगावा की अर्थव्यवस्था के गतिशील होने का सकित देता है। 18वीं शताब्दी का अंत होते-होते राजधानी इदों की आबादी लगभग दस लाख हो गयी थी। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, दस्तकार और दूकानदार यहाँ आकर और ओसाका, क्‍्योतो जैसे दूसरे शहरों या कनाजुवा सेंदाई कगोशिनों जैसे दुर्ग कसबों में जाकर बस गये जिनकी आबादी 50,000 से भी ऊपर थीं। सोकाइद्स (पूर्बी समुद्री सड़क), नाकासेंदों (पर्वत के मध्य की सड़क), सान्योदो (पर्वतों की धूप वाली तरफ की सड़क) और सनिंदों (पर्वत की छांव वाली तरफ की सड़क) जैसी सड़कों के बनने से व्यापार में बेहतरी आयी।

   उमरने वाली शहरी संस्कृति बुनियादी तौर पर व्यापारियों के नेतृत्व वाला आंदोलन था। व्यापारियों (शोनिन) को वैसे तो दूसरों पर निर्भर करने वाले या परजीवियों के रूप में नीची निगाह से देखा जाता था, लेकिन वे ही जापान के पहले उद्यमी थे। वे कठिन परिश्रम करते थे और उन्होने एक जीवंत सामाजिक व्यवस्था को विकसित करने में योगदान दिया। उदाहरण के तौर पर, 1627 में, एक मित्सुई तोशित्सूगा ने इचीगाया के नाम से इदो में एक वस्त्र की दुकान खोली जो बढ़ते-बढ़ते आज मित्सुकाशी के नाम से मित्सुई कंपनी की है।

   तोकुगावा घराने ने कुछ व्यापारियों को संरक्षण दिया जिन्हें चावल की खरीद-फरोख्त, मुद्रा विनिमय और इससे संबंधित गतिविधियों पर एकाधिकार दे दिया गया। ओसाका व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र था और इन व्यापारियों ने बड़े-बड़े मकान बना लिये और पैसा इकट्ठा कर लिया। धीरे-धीरे बास्तविक गतिशीलता छोटे कसबों और बाद में गांवों की ओर बढ़ी जिनके पास एकाधिकार बाला विशेष अधिकार नहीं रहा।

   तोकुगावा के दर्शन का आधार यह विचार था कि पैसा खेती से आता है, और उसमें आमदनी के इस नये स्रोत को नहीं पकड़ा। बल्कि कई मौकों पर तो व्यापारियों के लिए आदेश पत्र जारी किए गए कि वे अपने धन का प्रदर्श न करें, या उनसे जबरन ऋण लेने के लिए आदेशपत्र जारी किए गए। व्यापारी वर्ग भिन्‍नता से मुक्त नहीं था लेकिन बाकुफू के तहत इसे जो विशेष अधिकार मिले हुए थे उससे इनमें आपस में ही वर्गीकरण हो गया था। उनकी जिम्मेदारी थी संस्थाएं बनाना और कौशल हासिल करना जिससे जापान के लिये अपने आपको एक आधुनिक राष्ट्र बनाना समव हुआ।

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