परम्परागत भारत में व्यावसायिक प्रस्थिति, जजमानी प्रणाली की व्यापकता के कारण वर्ग से मिन्न थी। पारंपरिक व्यावसायिक दायित्वों / संरक्षक.ग्राहक (चंजतवद.ब्सपमदज) संबंधों की जजमानी प्रणाली ने जातिगत श्रेणी को ढक रखा था और अपने पर्वूजों से प्राप्त पशागत स्थिति को अपनाना व्यक्तियां के लिए आवश्यक कर दिया था। संवैधानिक प्रावधानों की जाति आधारति कठोरता को चुनौती भूमि सुधारों का आगमन, औद्योगिकीकरण, शिक्षा का प्रसार, अर्थव्यवस्था का मुद्रीकरण और आधुनिक परिवहन की उपलब्धता के कारण बाजार लेनदेन की व्यवहार्यता ने जजमानी व्यवस्था के लिए क्रमिक क्षरण को जन्म दिया है।
धारणा है कि ब्रिटिशां से पहल भारत में गाँव आर्थिक रुप से स्वाबलम्बी थे वो जजमानी (पीढियों से जमीनदार और किसान के बीच में आर्थिक लने.देन के परस्पर संबंध) पद्धति के द्वारा किया गया सृजन था, जहाँ पर भुगतान सामान /अनाज (पैसा देने के व्यवस्था के अभाव में से होता था, और कमजोर यातायात व्यवस्था ने सामान के आने.जाने को सीमित किया था।
यह विलियम और चारलाटे वाईजर (1936 / 1969) थे जिन्होंने 1930 मं पश्चिमी यू पी. के करीमपुर के अध्ययन में भारतीय गाँवो में जाति समूह के बीच सामाजिक संबंधां की परस्परता की अवधारण दी थी जो भारतीय ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम्य जीवन का एक प्रारम्भिक नृविज्ञान अध्ययन माना जाता है, और जजमानी व्यवस्था का भी।
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