पंडिता रमाबाई सरस्वती का जन्म 23 अप्रैल 1858 को हुआ था। उन्हांने हिंदू प्रभुत्वत वाल जाति.पांति वाले समाज के उत्पीड़न को उजागर करके महिलाआं के अधिकारों का समर्थन किया। उनके उदार और समतावादी विचारों ने अंग्रेजी.शिक्षित ब्राह्मण बुद्धिजीवियों की व्यापक दुनिया में प्रतिक्रिया की लहरें पैदा कर दी।
पंडिता रमाबाई ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने और बाल विवाह के उत्पीड़न से लड़ने के लिए पहली स्वायत्त महिला संगठन आर्य महिला समाज' की स्थापना की। उन्हांने हिदूं धर्म द्वारा निर्धारित पितृसत्तात्मक आदर्षा तथा उसक मौलिक सिद्धांत जाति को समाज और परिवार के स्तरों पर चुनौती दी। उनके द्वारा लिखित 'उच्च जाति हिंदू महिला' पाठ बाल वधुओं और विधवाओं सहित उच्च जाति की हिंदू महिलाओं की मुश्किलों और दमनकारी पहलुओं को उजागर करता है। हिंदू धर्म के संस्कृत मूल को अनिवार्य रूप से महिला विरोधी के रूप में पाकर, वह ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गई। उन्हांने प्राचीन पवित्र ग्रंथों, और धर्म शास्त्रों और पुराणां जैसे महाकाव्यों का उच्च और निम्न दोनों जाति की महिलाओं को बुरा और अपवित्र कहने के लिए आलाचेना की, और इसलिए, मोक्ष के लिए अयोग्य करार दिया।
वह भारत में पहली कार्यकर्ताओं में से एक थीं, जो जाति.विहिन, वर्गविहीन और पितृसत्ता.मुक्त समाज की विचार को मूर्त रूप देती थीं (ओमवेत 2001: 32)। हालाँकि, पहल उन्हांने उच्च जाति की विधवाआं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया था, 1896 में महाराष्ट्र के अकाल के बाद उनका ध्यान बाल विधवाआं और निराश्रित महिलाओं को स्थानांतरित करने पर था। उसने उन्हं बचाया और आश्रय-घर 'मुक्ति' और 'शारदा सदन का निर्माण कर हिंदू धर्म के मूल में निहित मौलिक पितृसत्ता की निंदा की।
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